बंद की परिभाषा

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2018 में अब तक तीन भारत बंद हो चुके हैं, पहला 2 अप्रैल ,दूसरा 6 सितंबर और तीसरा 10 सितंबर ,तीनों भारत बंद मैं अलग-अलग मांगें थी ,और अंतर भी।

पहला भारत बंद सरकार को ढाल बनाकर न्यायालय के फैसले के खिलाफ था, इस बंद को कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष का समर्थन प्राप्त था ,भारत के कई राज्यों में जमकर तोड़फोड़ ,आगजनी की घटनाएं हुई, अरबों रुपए की शासकीय और अशासकीय संपत्ति का नुकसान किया गया एवं एक दर्जन से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गवाई और इस बंद के पीछे मांग थी की न्यायालय द्वारा एससी एसटी एक्ट के मामलों में पहले जांच और अपराध साबित होने पर गिरफ्तार की जाए ,तमाम विपक्षी दलों के इस बंद का समर्थन कर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगाया , लेकिन ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस बंद की आड़ में हुए खुलेआम अपराध की जिम्मेदारी किसकी ?,क्या विरोध प्रदर्शन का यह तरीका उचित है? ।

दूसरा बंद 6 सितंबर को भारत के इतिहास में पहली बार स्वर्णो ने अपने हितों की रक्षा के लिए भारत बंद का आव्हान किया, जिसमें देशभर में किसी प्रकार की कोई अप्रिय घटना नहीं हुई और इस बंद को देशभर में किसी भी पार्टी ने अपना समर्थन नहीं दिया, इससे यह प्रतीत होता है कि राजनैतिक हस्तक्षेप के चलते विरोध प्रदर्शन के मायने बदल जाते हैं।

तीसरा बंद 10 सितंबर को कांग्रेस पार्टी की अगवानी में पेट्रोल डीजल की मूल्य वृद्धि एवं महंगाई के चलते किया गया, इस बंद को भी लगभग पूरे विपक्ष का साथ मिला ,विशेषतः बिहार में आरजेडी एवं उत्तर प्रदेश में एसपी और बीएसपी ने इस बंद में अपना सहयोग दिया ,हिंसक प्रदर्शन, आगजनी, तोड़फोड़ सब कुछ इस बंद के दौरान दिखाई दिया।

क्या बंद की यही परिभाषा है ?,कि जनता की मांगों को लेकर विरोध प्रदर्शन के चलते जनता के लिए ,जनता के हितेषी बनकर जनता का ही नुकसान किया जाए।क्या बापू की अहिंसा की लाठी थामने वाली कोई राजनैतिक पार्टी हिन्दुस्तान में नही है ?.

क्या वास्तव में आम जनता इस तरह का बंद चाहती है ?,और अगर नहीं तो, वह तमाम राजनेेतिक पार्टियां जो इस तरह के बंद करती है, या समर्थन करती है, उन्हें आत्ममंथन करने की आवश्यकता है, क्योंकि ऐसा करके वे ना सिर्फ अपने ही समर्थकों का नुकसान करती है बल्कि उनके विश्वास को भी ठेस पहुंचाकर अपने से दूर कर रही है ,एवं अपनी छबि को भी धूमिल करती है।


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