जब किसी मुद्दे को लेकर कई लोगों की सोच मिलती है तब एक संगठन बनता है और उस मुद्दे पर संगठन मिलकर आवाज उठाता है ,लेकिन ऐसा अनुभव इतिहास बताता है कि जब भी कोई संगठन किसी मुद्दे को लेकर आगे बढ़ता है और उस संगठन का का राजनीतिकरण हो जाता है तो संगठन उस मुद्दे से भटक जाता है और जिस मुद्दे को लेकर संगठन चलता है वह मुद्दा कभी अपने अंतिम पड़ाव तक नहीं पहुंच पाता ।
सवर्णो को आरक्षण देने अथवा आरक्षण समाप्त करने के मुद्दे को लेकर मध्यप्रदेश में कई संगठन सक्रिय हैं लेकिन हाल ही में सपाक्स ने चुनाव लड़ने की घोषणा करके संगठन का राजनीतिकरण कर दिया ऐसा करके उनका मानना है कि वह सदन में जाकर अपनी मांग रखेंगे तो मांग को माने जाने की संभावना बढ़ जाएगी ,लेकिन जानकारों का कहना है कि ऐसा करके सपाक्स अपने आरक्षण के मुद्दे को कमजोर कर रहा है क्योंकि जब कोई मुद्दा आम आदमी उठाता है तो सरकारें हिल जाती हैं लेकिन आम आदमी खुद सरकार बन जाता है तो ना तो वह आदमी आम रहता है और ना मुद्दा ,नतीजा संगठन बिखर जाता है ।
जानकारों का यह भी कहना है कि इतिहास में कई उदाहरण हैं जिसमें कि संगठन का राजनीतिकरण होने पर संगठन के लोग जरूर राजनेता हो गए हैं लेकिन मूल मुद्दा अभी भी कायम है, लोकपाल के मुद्दे को लेकर केजरीवाल और अन्ना संगठन, जिसने मनमोहन सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे और सरकार बैकफुट पर नजर आ रही थी, लेकिन जैसे ही केजरीवाल ने संगठन का राजनीतिकरण किया केजरीवाल तो सदन में चले गए लेकिन लोकपाल का मुद्दा जस का तस है ,वही गुजरात में पाटीदारों ने आरक्षण के मुद्दे पर हार्दिक पटेल का तन मन धन से सहयोग किया लेकिन राजनीतिकरण होने से संगठन भी कमजोर हुआ और पाटीदारों के आरक्षण का मुद्दा जस का तस है, ऐसे में सवाल यह उठता है कि समाज में रहने वाले हर तबके की किसी न किसी मुद्दे पर सरकार से मांग होती है उसके लिए सदन में हर समाज, हर तबके से जनप्रतिनिधि जो कि जनता द्वारा ही चुने जाते हैं मौजूद हैं ब्राह्मण क्षत्रिय पाटीदार आदि से जनप्रतिनिधि सदन में मौजूद है और आरक्षण पाने वाले समाज से भी जनप्रतिनिधि सदन में मौजूद हैं लेकिन आरक्षण पाने वाले समाज को आरक्षण सदन में बैठे जनप्रतिनिधियों ने आवाज उठाकर नहीं दिलवाया ,बल्कि जनता ने संगठित होकर आवाज उठाकर सरकार को इसे मानने पर मजबूर करने पर मिला है ,आम आदमी जब संगठन में रहता है तो वह बहोत मजबूत होता है , लेकिन वो जब जनप्रतिनिधि बन जाता है तो वह अपनी राजनैतिक विवशता प्रकट करने लगता है,सदन में अपना जनप्रतिनिधि भेज कर कोई संगठन यह सोचता है कि उसकी मांग मान ली जाएगी तो संगठन को पुनर्विचार करने की आवश्यकता है ,हर संगठन में कुछ केजरीवाल जैसी राजनीतिक आकांक्षाओं वाले लोग होते हैं जो खुद संगठन का सहारा लेकर राजनेता बन जाते हैं और मुद्दा कहीं दूर छूट जाता है और वह किसी न किसी राजनीतिक पार्टी का हिस्सा बन जाता है इसलिए हर संगठन को सचेत रहने की एवं संगठन अपने मुद्दे से ना भटके ऐसा कदम उठाने की आवश्यकता है ।
