लगभग सभी राजनैतिक पार्टियां विकास और गरीबी हटाने के नाम पर वोट मांगती आ रही है लेकिन एन चुनाव के वक्त क्यों उनको विकास के बदले आरक्षण का सहारा लेना पड़ता है आखिर क्यों चुनाव के वक्त राजनीतिक पार्टियां विकास के बदले आरक्षण का हाथ थाम लेती है ऐसे में कहना लाज़मी है की आरक्षण के आगे विकास बौना सा लगता है
ज्ञात रहे की आरक्षण को महज कुछ साल के लिए परीक्षण के तौर पर लाया गया था लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता गया आरक्षण को जैसे राजनीतिक रंग चढ़ता गया और विकास दिनों-दिन धुंधला सा लगने लगा, सभी राजनीतिक पार्टियों ने जैसे सत्ता में आने का आरक्षण ही मुख्य हथियार बनता गया।
ऐसा लगता है कि मानो इस आरक्षण ने देश के कई टुकडे कर दिए हो और इन्हीं टुकड़ों को राजनेता बटोरकर सत्ता में आने के लिए आतुर है।
देश में दो पार्टियां प्रमुख रुप से रही हैं जिसमें आरक्षण का बीज बोने वाली पार्टी को भी देश की जनता ने पूर्ण बहुमत से सत्ता में काबिज किया लेकिन आरक्षण को खत्म करने की वो हिम्मत नहीं जुटा पाई बल्कि साल-दर-साल इस में इजाफ़ा ही होता रहा,ओर विकास की राह टेढ़ी होती गई, आखिर क्यों काबिलीयत को हर समय मुंह की खानी पड़ी, और हम विकास की बात करते है ,दरअसल राजनीतिक पार्टियों का मूल मकसद लोगों को धर्म और जाति के आधार पर बांटकर सत्ता मैं आना और उसके बाद विकास अपने आने की बारी का इंतजार ही करता रह जाता है ,या यूं कहो की सत्ताधारी पार्टी को विकास को लेकर दूरदृष्टि कमजोर सी लगती है
सही मायनों में आरक्षण और विकास गाड़ी के दो पहिए कभी नहीं हो सकते हमको इन में से एक को चुनना होगा
वर्तमान में देश की दूसरी प्रमुख राजनीतिक पार्टी भी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में काबिज है लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब आरक्षण जैसे मुद्दे पर हाथ रखना मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा प्रतीत हो रहा है
बहरहाल अब देखना यह है कि राजनीतिक पार्टियां देश को धर्म जाति के आधार पर देश को बांटने के बजाय विकास की राजनीति करेगी, या यूं ही आरक्षण के आगे विकास बौना साबित होगा?
