“वातावरण में घुलता तनाव का ज़हर”

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आधुनिक जीवन जीने की होड़ में हम इस कदर मशरूफ हो चुके हैं कि हमें खुद पता नहीं चल रहा है कि तनाव रुपी ज़हर ने कब हम को अपने में समा लिया है
आजकल वातावरण में तनाव इस तरह छाया हुआ है कि यह व्यक्ति समाज या यूं कहें कि हर घर में जा समाया है ,पश्चिमी देशों की संस्कृति और जीवन शैली को अपनाने की होड़ इसमें अहम भूमिका निभा रही है।
संयुक्त परिवार, दादा-दादी, नाना-नानी जैसे शब्दों के जैसे मायने ही बदल गए हैं आधुनिक जीवन जीने और उससे जुड़ी आवश्यकताओं को पूरा करने में आज इंसान अपने उसूल ,अपने व्यक्तित्व और यहां तक कि अपनों को भी दांव पर लगाने मे परहेज नहीं कर रहा ,जीवन जैसे कोल्हू के बैल जैसा प्रतीत हो रहा है पूरा जीवन आधुनिकता की दौड़ दौड़ने में व्यतीत हो जाता है और बुढ़ापे में जैसे हाथ खाली हो जाते हैं, आज कल मां बाप पर तनाव इतना हावी हो चुका है कि उनको अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं है और यही वजह है के बच्चे भी भारतीय संस्कार और संस्कृति को जैसे भूलते जा रहे हैं और इसका सबसे बुरा परिणाम है बुढ़ापा, बूढ़े और वृद्ध लोग परिवार और समाज पर बोझ से व्यतीत हो रहे है, आज हमने अपनी आवश्यकताओं को इतना विकराल रूप दे दिया है कि हर व्यक्ति उनको पूरा करने मैं इतना तनाव लिए हुए हैं कि लगता है वह अपना जीवन जीना ही भूल गया है,
बच्चे भीआजकल हंसना खेलना भूलकर पढ़ाई को लेकर इतना तनाव ग्रस्त हैं कि वह किसी भी हद को पार करने को आतुर हैं,
नौकरशाही हो या व्यापार तनाव रुपी ज़हर ने किसी को भी नहीं बख्शा है, नौकरीपेशा लोगों को नौकरी करने और उसको बचाए रखने का तनाव, व्यापारी हो या किसान नफा नुकसान को सहने की क्षमता जैसे खत्म होती जा रही है नफा हो तो और नफा चाहिए और नुकसान हो तो कोई भी कदम उठाने को तैयार है। तनाव रूपी धुंध पूरे वातावरण मैं छाई हुई है।
इस विषय पर हमको चिंतन करने की आवश्यकता है, क्योंकि यह तनाव रूपी ज़हर हमारे संस्कार हमारी संस्कृति को बर्बाद करने को आतुर है ।


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