आपकी झाड़ू आप ही रखो, विक्की ने झाड़ू लोटाई

अब क्या झाड़ू को फिर बागी की है तलाश?
उज्जैन, उज्जैन उत्तर में फिर हुआ चुनावी उलट फेर, कांग्रेस पार्टी से टिकट न मिलने पर हुए बागी विक्की यादव ने आम आदमी पार्टी की सदस्यता ली थी और पंजे का साथ छोड़कर हाथ में झाड़ू पकड़ ली थी , लेकिन अचानक यादव ने यू टर्न लेते हुए वापस बैक टू पवेलियन होना उचित समझा है ऐसा क्यों समझा है यह कहना अभी जल्दबाजी होगी , और आने वाले समय में कांग्रेस पार्टी को विक्की यादव के पार्टी में वापस लौटने पर उज्जैन उत्तर को कितना फायदा होगा यह देखने वाली बात होगी ,आपको बता दें कि ऐसा उज्जैन उत्तर में 2013 में भी हुआ था जब कांग्रेस की माया राजेश त्रिवेदी को टिकट नहीं दिया गया था तब पार्टी ने विक्की यादव को टिकट दिया था, तब उन्होंने भी बागी रूख अपनाते हुए निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी लेकिन उस समय भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें समझा बुझा कर निर्दलीय चुनाव लड़ने से रोक दिया था, लेकिन कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता विक्की यादव की हार को जीत में नहीं बदल पाए, लेकिन 2018 में तो पार्टी के वरिष्ठ नेता भी उत्तर में टॉर्च जलाने से रोक नहीं पाए , और नतीजा यह हुआ था कि कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी राजेंद्र भारती की बुरी तरह हार हुई थी, ठीक इसी प्रकार इस बार कांग्रेस पार्टी ने माया राजेश त्रिवेदी को उज्जैन उत्तर से टिकट दिया और इस बार विक्की यादव ने टिकट न मिलने पर बागी रुख अपनाते हुए आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया था ,लेकिन एक बार फिर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने विक्की यादव को मना लिया और उज्जैन उत्तर से कांग्रेस प्रत्याशी माया राजेश त्रिवेदी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का भरोसा जताया है, अब देखना यह है कि विक्की यादव के साथ से माया राजेश त्रिवेदी का हाथ कितना मजबूत होगा यह समय ही बताएगा, फिलहाल टोर्च की रोशनी की चका चौंध ने हाथ से झाड़ू छोड़ने पर मजबूर कर दिया,बेचारी झाड़ू घर की रही न घाट की , इस घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि झाड़ू सिर्फ डराने के काम में आती है चर्चा शहर में यह भी थी कि भरत पोरवाल भी झाड़ू पकड़ सकते थे लेकिन उनके अरमान भी ठंडा कर दिए गए हैं,अब क्या झाड़ू को किसी और बागी का इंतजार है?
“क्या कहता है मध्यप्रदेश में बागियों का राजनेतिक इतिहास”
अगर कांग्रेस पार्टी की बात करें तो 2019 में कांग्रेस पार्टी के चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थामा था जिसके चलते कमल नाथ की सरकार मध्य प्रदेश में गिर गई थी इसके साथ ही ज्योतिराज सिंधिया गुट के सभी नेताओं ने भी भाजपा का दामन थाम लिया था जिसमें उज्जैन से राजेंद्र भारती उमेश सेंगर संजय ठाकुर भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे, इसके साथ ही कांग्रेस के जयसिंह दरबार ने भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया था यह बात और है कि भाजपा ने इस बार सिंधिया गुट के किसी नेता को टिकट दिए जाने की लिस्ट में शामिल नहीं किया, वहीं अगर भाजपा की बात करें तो विधानसभा चुनाव 2023 में मध्य प्रदेश से लगभग 40 नेताओं ने भाजपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया है,मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी नेताओं का लगातार पार्टी से होता मोहभंग सत्तारूढ़ दल के लिए बड़ी चुनौती बन गया है, ऐसा कोई हफ्ता नहीं जा रहा जब भाजपा से कोई नेता कांग्रेस में नहीं जा रहा हो,ऐसे नेताओं की संख्या 40 के पार पहुंच गई है, लेकिन लोकतंत्र में चुनाव से पहले राजनीतिक दलों के नेताओं की दल बदल करने की कूद फांद किया जाना फिर भी ठीक है लेकिन चुनाव में जनता के द्वारा जनप्रतिनिधि चुन लिए जाने के बाद जन प्रतिनिधि का दल बदल किया जाना लोकतंत्र की हत्या और जनता के विश्वास का हनन कहलाता है, ऐसे में इस प्रकार से चुनाव के बाद जनप्रतिनिधियों के द्वारा दल बदल किए जाने पर संविधान में बदलाव किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि ऐसे में लोकतंत्र में चुनाव किए जाने के कोई मायने नहीं रह जाते हैं, खैर अभी चुनाव मध्य प्रदेश में होना बाकी है और चुनाव के बाद किसकी सरकार बनती है और उसे समय राजनीतिक परिदृश्य क्या होता है कहना जल्दबाजी होगी।
“क्या राजनीति में जनता के विश्वास की कोई कीमत नहीं है”
राजनीति के खेल में यह सब आम बात है, इससे पहले भी चुने हुए हाथ ने कमल का फूल पड़कर मध्य प्रदेश में सरकारी बगीचा बनाया था,ये राजनीति है यहां जनता की भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है,
लोकतंत्र का त्योहार मनाने में जहां करोड़ों रुपए जनता के खर्च होते हैं और जनता नेताओं और अपनी विचारधारा से मेल खाने वाले राजनेतिक दल पर विश्वास जताते हुए अपना बहुमूल्य वोट देती है,लेकिन चुनाव के बाद वही जनप्रतिनिधि चंद सिक्कों के आगे घुटने टेक देते हैं और ऐसे में जनता के विश्वास के और चुनाव के कोई मायने नहीं रह जाते, और ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या ऐसे जनप्रतिनिधि वास्तव में जनता की सेवा करने का अपना कर्तव्य निभाते हैं और जनता के विश्वास के प्रति ईमानदार रह पाते हैं शायद नहीं, क्योंकि जो नेता चुनाव से पहले रोडपति होते हैं वह चंद सालों में करोड़पति कब और कैसे बन जाते हैं यह एक शोध का विषय है ऐसे में जनता का सवाल चुनाव आयोग से है की चुनाव प्रक्रिया के बाद चुने हुए जनप्रतिनिधि अगर दल बदल करते हैं तो उस जनप्रतिनिधि की विधानसभा या लोकसभा की सदस्यता रद्द कर देनी चाहिए ताकि भविष्य में कोई भी जनप्रतिनिधि जनता के विश्वास के साथ खिलवाड़ न कर सके।
बहरहाल मध्य प्रदेश में अभी चुनाव की घोषणा हुई को कुछ ही दिन हुए हैं और इन कुछ दिनों में ही कई उलट फेर हमने उज्जैन की राजनीति में देखे हैं अभी आगे चुनावी परिदृश्य में और क्या परिवर्तन दिखाई देंगे यह देखने वाली बात होगी।
