पत्रकारों चलो भोपाल अपना हक़ मांगने
शिवराज सरकार द्वारा पत्रकारों की उपेक्षा
दो साल से अधिमान्यता नहीं
उज्जैन, पत्रकारों चलो भोपाल अपना हक मांगने, 2017 में मध्य प्रदेश के कई पत्रकार संगठनों ने पत्रकारों के हक के लिए यह आह्वान किया था, देखा जाए तो 2017 से पहले से लेकर अब तक अगर 1 साल कमलनाथ सरकार को छोड़ दिया जाए तो लगातार शिवराज सरकार ही मध्यप्रदेश में रही है लेकिन साल दर साल यह देखा गया है कि शिवराज सरकार द्वारा पत्रकारों के हितों की अनदेखी की गई है, यह किसी एक पत्रकार का आरोप नहीं है बल्कि कई पत्रकार संगठनों ने मध्य प्रदेश सरकार पर पत्रकार हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है।
हाल ही में एक वाकया मध्यप्रदेश के नसरुल्लागंज में देखा गया जहां पत्रकारों के नजर नहीं आने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों को खूब लताड़ा लेकिन सवाल यह उठता है कि इस प्रकार के हालात मध्यप्रदेश में क्यों बनते जा रहे हैं, इसके लिए मुख्य रूप से कुछ कारण सामने आए हैं जिसमें मध्य प्रदेश सरकार और मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग की नीतियां उत्तरदाई है।
2017 में पत्रकार गंगा पाठक ने एक संदेश लिखा है जो उन तमाम पत्रकार साथियों के नाम था जो मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग की कार्यशैली और स्वेच्छाचारिता से क्षुब्ध हैं।
”जनसंपर्क विभाग हैं कहां साहब! अब तो जनसंपर्क के नाम पर कथित महत्वपूर्ण लोगों की चापलूसी करने वाला एक गिरोह चल रहा है। इस गिरोह के मन में जो आता है, वही किया जाता है। जहां तक पत्रकारों की बात है तो मध्यप्रदेश में जनसंपर्क विभाग ने पत्रकारों को जाने कब का हाशिये में रख दिया है। पत्रकारों की परिभाषा बदल दी गई है, वरिष्ठता के मापदण्ड विसर्जित कर दिये गये हैं, अधिमान्यता की बोली लगाई जा रही है। इस सबके बावजूद सब खामोश हैं। सरकार खामोश है, सूचना मंत्री और उनका मंत्रालय खामोश है, पत्रकारों के कथित संगठन खामोश हैं। इन लोगों की खामोशी तो एक हद तक बर्दाश्त की जा सकती है लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना यह कि मध्यप्रदेश का पत्रकार खामोश है, कलम की धार खामोश है, श्रमजीवी खामोश है। इस खामोशी को तोडऩा होगा, कलम की धार बिचौलियों के आगे कमजोर पड़ गई है, इस मिथक को तोडऩा होगा।
जनसंपर्क विभाग बुरी तरह बीमार है, उसकी सोच फालिज का शिकार है, उसकी कार्यशैली में चापलूसी और दलाली की गंध आती है, उसकी नीतियों में पत्रकारों को छोड़कर सब कुछ नजर आता है। ये मध्यप्रदेश है हुजूर, जहां पत्रकारों को छोड़कर चाहे जिसको अधिमान्यता की रेवड़ी दी जाती है, जहां आधे से ज्यादा अधिमान्यताएं उन चेहरों पर चिपकाई गई हैं, जो या तो अवांछित गतिविधियों में संलिप्त है, या फिर जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक सरोकार नहीं रहा। ये खेल लगातार जारी है। ईमानदारी से काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकार न तो अच्छा पारिश्रमिक प्राप्त कर पाते हैं और न अधिमान्यता! दूसरी ओर चापलूसी और दलाली की भरपूर कीमत वसूलने वाले अधिमान्यता का तमगा मुफ्त में पा जाते हैं। इसी वजह से अखबार के संचालकों को अपनी जेब में रखने की दम्भोक्ति का उद््घोष करने वाले जनसंपर्क विभाग को पत्रकारिता में पत्रकार छोड़ सब दिखता है।
जब अधिमान्यता के लिये यह गोरखधंधा चल रहा हो तो अधिमान्यता देने के लिये गठित समितियों के गठन और उसके वजूद पर सवाल उठाना बेमानी है। अधिमान्यता ही जब एप्रोच और चापलूसी की कसौटी पर परख कर दी जा रही है तो इन कमेटियों में स्थान देने की नीति इससे परे नहीं हो सकती। सब कुछ हो रहा है, बेखटके हो रहा है। ऐसा नहीं है कि सही मायनों में पत्रकारिता करने वाले पत्रकार अधिमान्य पत्रकारों की सूची में नहीं हैं, ऐसा नहीं कि मध्यप्रदेश में तमाम पत्रकार जनसंपर्क विभाग की आरती गा रहे हैं और ऐसा भी नहीं है कि मध्यप्रदेश की पत्रकारिता की धार के आगे जनसंपर्क विभाग का कोई अस्तित्व है।
दरअसल मध्यप्रदेश के पत्रकारों ने मध्यप्रदेश जनसंपर्क की अधिमान्यता की मान्यता को ही नकार दिया है। साफ लफ्जों में मध्यप्रदेश में अधिमान्यता की मान्यता पत्रकारों ने निरस्त कर दी है। अब पत्रकारों से ज्यादा चिन्ता सूचना मंत्रालय और मध्यप्रदेश सरकार को होना चाहिये कि वे सरकारी अधिमान्यता को पुन: मान्यता किस तरह दिलवायें, अधिमान्यता का सम्मान उठाने के लिये कौन से कदम उठाये जाएं। हम पत्रकारों को चाहिये कि जनसंपर्क में चल रहे तथाकथित गुटों को बेनकाब कर दें, हम पत्रकारों को चाहिये कि अंदर से काले चेहरों पर डली सफेद नकाबों को नोंच लिया जाये। और पत्रकारों को चाहिये कि पत्रकारों के नाम पर हर साल खर्च होने वाली भारी भरकम राशि को डकारने वाले इस विभाग से हमेशा-हमेशा के लिये खदेड़ दिये जाएं।
अब यही होगा। हम सबको मिलकर यही करना चाहिये। जिसके पास जो अधिकृत जानकारी हो, उसे वह सार्वजनिक करे, घोटाले सप्रमाण सामने लाये जायें, अपने पत्रकार संगठनों को उन पर ज्ञापन सौंपने को कहा जाये और जब तक ‘दे दनादन’ वाली कार्रवाई न हो, कोई खामोश न बैठे। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो हम भी ‘कथित पत्रकारों’ की सूची में शामिल माने जायेंगे और सरकार पत्रकारों पर होने वाले भारी भरकम खर्च की बदौलत हमें भी ‘चोर चोर मौसेरे भाई’ वाली कहावत में शामिल कर लेगी।”
– गंगा पाठक
(वॉट्सऐप ग्रुप सबकीआवाज़न्यूज़ पर प्राप्त और प्रसारित)
उपरोक्त संदेश कई व्हाट्सएप ग्रुपों में फारवर्ड और अपलोड किया गया था , वैसे तो इस मैसेज में पत्रकारों की व्यथा समाहित है और मध्य प्रदेश सरकार एवं जनसंपर्क विभाग मध्यप्रदेश की कार्यशैली का भी उल्लेख है लेकिन 2017 से लेकर अब तक जबकि 2022 खत्म होने को है लगातार पत्रकारों के हितों की अनदेखी की जा रही है।
बात करें अधिमान्यता की , वैसे तो अधिमान्य पत्रकारों के सारे अधिकार धीरे-धीरे क्षीण कर दिए गए हैं लेकिन बावजूद इसके पिछले 2 सालों से मध्यप्रदेश में अधिमान्यता कमेटी भंग की हुई है, अर्थात 2 सालों से मध्यप्रदेश में किसी पत्रकार को अधिमान्यता नहीं दी गई है।
लेकिन इससे पहले भी जनसंपर्क विभाग द्वारा अधिमान्यता सूची को लेकर कई सवाल खड़े हुए हैं, इससे पहले अधिमान्यता के मानकों से परे जाकर गैर पत्रकारों को अधिमान्यता दी गई जिसमें कई भू माफिया, खनन माफिया, शराब माफिया, अपराध में संलिप्त लोग, राजनीतिक पहुंच एवं चाटुकारिता वाले लोग, अखबार संपादक के रिश्तेदार जो वास्तविक में गैर पत्रकार हैं, इस तरह के तमाम गैर पत्रकारों को अधिमान्यता रेवड़ी की तरह बांटी गई और लगातार बिना तहकीकात किए उसको रिन्यूव करना भी जारी है, वहीं दूसरी ओर वास्तविक पत्रकार जिन्होंने कई अखबारों को अपनी लेखनी के दम पर फलक तक पहुंचाया, वह अभी भी अखबार दर अखबार अपनी चप्पलें घिस रहे हैं, लेकिन अभी भी वह अधिमान्यता से वंचित है क्योंकि ज्यादातर अखबार मालिकों ने उनके इस हक को अपने परिवार एवं रिश्तेदारों में बांट दिया है।
वहीं आधुनिकता के इस दौर में जहां डिजिटल मीडिया को प्राथमिकता दी जा रही है ऐसे में न्यूज़ वेब पोर्टल को संचालित करने वाले पत्रकारों को भी केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा मान्यता दी जाए ।
बहर हाल मध्य प्रदेश सरकार को चाहिए कि पत्रकार हितों को लेकर एक ठोस नीति का निर्धारण किया जाए,ताकि वास्तविक पत्रकारों को उनका हक मिले, एवम गैर पत्रकारों की अधिमान्यता रद्द कर पत्रकारिता जगत में एक स्वच्छ एवम निष्पक्ष माहौल निर्मित हो, तभी सही मायने में लोकतंत्र की गरिमा बच पाएगी।
