
संपादकीय
” अंग्रेजों और मुगलों की मानसिकता से प्रेरित है,आज के जनप्रतिनिधियों की मानसिकता ”
“स्वार्थ की मानसिकता के चलते लोकतंत्र अपने अंतिम पड़ाव की ओर हो रहा है अग्रसर”
वर्तमान समय में यह एक चिंतनीय और शोध का विषय है , कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने लोकतंत्र को लाने के लिए फिरंगियों से लोहा क्यों लिया? ,आखिर फिरंगियों और आज के जनप्रतिनिधियों की मानसिकता में भला क्या अंतर है,मुंगलों को हम उनकी हड़पने की मासिकता की खिलाफत करते हैं लेकिन आजादी के 75 साल बाद आज हमारी मानसिकता हमें किस और धकेल रही है और आने वाली पीढ़ी हमारे आजकल के जनप्रतिनिधियों की मानसिकता से क्या सीख लेंगे? क्या हमारा लोकतंत्र अंग्रेजी और मुगल मानसिकता से प्रेरित हो रहा है? इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारे आज के जनप्रतिनिधियों की मानसिकता उनका पूर्णतः अनुसरण कर रही है।
बड़ी शिद्दत से हमने मुगलों और अंग्रेजों के जुल्मों सितम भरे रवैया से अपने और अपने आने वाली पीढ़ियों को बचाया और स्वतंत्रता हासिल की ,लेकिन अब हमारे जनप्रतिनिधियों के बीच सरदार वल्लभ भाई पटेल ,लाल बहादुर शास्त्री और अटल बिहारी वाजपेयी जैसी मानसिकता लगभग विलुप्त हो चुकी है, पश्चिमी सभ्यता में हम इतने रच बस गए हैं कि हमें अपनी संस्कृति एवं हमारी सभ्यता से मानो कोई सरोकार नहीं रह गया ,वसुधैव कुटुंबकम कि हम बात करते हैं लेकिन आधुनिक जीवन शैली ने हमारे पूरे जीवन के उद्देश्य एवं महत्व को बदल कर रख दिया है, आधुनिक विलासिता की वस्तुओं की पूर्ति के लिए हमने पैसों को सर्वोच्च महत्व देना प्रारंभ कर दिया है परिवार ,समाज,धर्म ,देश इन सब से कहीं ऊपर पैसों ने अपना उच्च स्थान हासिल कर लिया है।
आज हमें हमारे लोकतंत्र पर चिंतन करने की आवश्यकता है, क्या इसी लोकतंत्र के लिए हमने आजादी और स्वतंत्रता चाही थी क्या आजकल के जनप्रतिनिधि में हम सरदार पटेल ,लाल बहादुर शास्त्री जैसे निस्वार्थ सेवा भावी जनप्रतिनिधियों को देखते हैं? शायद नहीं ,लेकिन आजकल के जनप्रतिनिधियों में हमें हिटलर एवं सद्दाम हुसैन जैसे जनप्रतिनिधियों की मानसिकता को पनपते हुए जरूर देख रहे हैं ,क्योंकि आजकल के जनप्रतिनिधियों में हम जनसेवा का भाव कम ,अपितु बाहुबलियों का भाव स्पष्ट देख सकते हैं, और यही वर्तमान समय में हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और चिंतन का विषय बना हुआ है।
क्या हम इस तरह से हमारे लोकतंत्र को जनता का मंदिर कह सकते हैं?, क्या हम अपने जनप्रतिनिधियों को जनता का सेवक कह सकते हैं? शायद नहीं, क्योंकि जनप्रतिनिधियों में जनता की सेवा का भाव अब नहीं के बराबर रह गया है।
भारत के इस लोकतंत्र के छोटे से हिस्से उज्जैन की बात भी कर ही लेते हैं, मैं जब छोटा सा था तब उज्जैन के हर एक परिवार की दिनचर्या मिल में बजने वाले सायरन से संचालित हुआ करती थी, उज्जैन के लगभग हर परिवार का चूल्हा यहां की मिलों और आलीशान उद्योगों के बल पर बड़ी शान से जला करता था, उसके बाद लोकतंत्र के सच्चे जनसेवकों का अवतरण हुआ ,कांग्रेस और बीजेपी दोनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने राजनीति पैर पसारने शुरू कर दिए, और फिर क्या था देखते ही देखते सड़कों पर चप्पल घिसने वाले नेता लखपति, करोड़पति ,अरबपति बनते गए और उद्योगों की संख्या इसी क्रम से कम होती गई और जनता कामगार से बेकार होती चली गई और जनप्रतिनिधि का ठप्पा लगाकर नेताओं ने अपने स्वार्थ को सिद्ध करते हुए जनता के विश्वास के साथ विश्वासघात किया , वर्तमान समय में यहां कोई भी बड़ा उद्योग न बचा है और न ही पिछले 40 सालों से किसी जनप्रतिनिधि ने उज्जैन की जनता के लिए साथापित करने की पहल की है, ऐसे में स्पष्ट है कि आजकल के इस आधुनिक जीवन में लोकतंत्र के मंदिर में बैठे जनप्रतिनिधियों की मानसिकता सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा और मानसिकता से प्रेरित है या हिटलर और सद्दाम हुसैन की मानसिकता और कार्य प्रणाली से प्रेरित हैं । यह भी जीवन का एक कटु सत्य है कि अंग्रेजों और मुगलों की मानसिकता किसी भी देश को एक स्वच्छ और निष्पक्ष लोकतंत्र नहीं दे सकता, वहीं हिटलर और सद्दाम हुसैन जैसी मानसिकता का अंत होना भी निश्चित है।
यहां सिर्फ मानसिकता का ही अंतर है कि सोने की लंका होने के बाद भी रावण का अंत हुआ, और श्री राम ने वनवासी होने के बाद भी अमरत्व को प्राप्त किया।
मानसिकता एक स्वच्छ लोकतंत्र का निर्माण कर सकती है, और अंत भी कर सकती है।
चिंतन इसलिए भी आवश्यक है कि हमारे आने वाली पीढ़ी का भविष्य आखिर क्या होगा, क्या हमारे जनप्रतिनिधि स्वार्थ सिद्धि की मानसिकता को छोड़कर जनसेवा के भाव को अपनाएंगे , क्या जनप्रतिनिधि जनता को मूलभूत सुविधाएं देने का प्रयास भी करेंगे ताकि कोई भी शहर भविष्य में शहर से गांव में तब्दील ना हो पाए, अन्यथा आने वाली पीढ़ी को “लोकतंत्र ” के शाब्दिक अर्थ का भी ज्ञान नहीं होगा।
दीपावली के इस पर्व पर जरूरत इस बात की है कि हम अपनी मानसिकता का शोधन करें।
मनोज उपाध्याय
पत्रकार 🖋️
