लोकतंत्र का पतन अब निश्चित,धंधा है पर गंदा है यह”

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लोकतंत्र का पतन अब निश्चित
जब मां अपने बच्चे का गला घोंटने लगे, उस बच्चे की मृत्यु निश्चित
उज्जैन, आपने वह कहावत सुनी होगी की जब किसी खेत को बाड़ ही खा जाए तो उस खेत की फसल का नष्ट होना निश्चित हो जाता है, यह कहावत आज के लोकतंत्र पर बिल्कुल सटीक बैठ रही है, चुनावी दौर चल रहा है और लोकतंत्र के पुजारी खुलेआम लोकतंत्र की हत्या करते नजर आ रहे हैं आलम यह है कि बाहुबली नेताओं ने हिटलर शाही का रूप ले रखा है ,जिसके चलते वे अपनी सारी हदें पार करते हुए बेशर्मी का नंगा नाच सरेबाजार करते नजर आ रहे हैं ,सत्ता और कुर्सी के लिए लोकतंत्र की हत्या सरेबाजार हो रही है, ना कोई सुनने वाला है ना कोई देखने वाला ,और ना ही कोई बोलने वाला है, तो क्या आजादी के बाद गांधी जी ने तीन बंदर इसलिए बनाए थे? और अगर गांधीजी के इन तीन बंदरों की तरह ही, लोकतंत्र को चुनने वाली जनता का हश्र होना था, ऐसे में लोकतंत्र और संविधान को बनाने के कोई मायने नहीं रह जाते हैं।
लोकतंत्र का अस्तित्व इसलिए भी खतरे में है कि जनता जिन जनप्रतिनिधियों पर विश्वास करके चुनती है वह जनप्रतिनिधि बड़ी बेशर्मी से सत्ताधारी पार्टी में विलीन हो जाते हैं जोकि चुनाव के पूर्व एक दूसरे पर कीचड़ उछालने मैं सारी हदें पार कर देते हैं, वे चुनाव के बाद एक थाली में भोजन करते हुए नजर आते हैं, क्या वास्तविक में इस प्रकार के लोकतंत्र की कोई आवश्यकता है, आखिर क्यों जनता के करोड़ों रुपए चुनाव के नाम पर बर्बाद किए जाते हैं ?
उज्जैन में नगरीय निकाय और पंचायत ,जनपद आदि के चुनाव हुए और इन चुनावों में जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने सत्ता के लिए खुलेआम बेशर्मी का नंगा नाच किया वह किसी से छिपा नहीं है ,ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर सब सत्ता पाने के लिए इतना आतुर क्यों है ? इसकी सच्चाई जानने के लिए आपको हर एक जनप्रतिनिधि के इतिहास को जानना बहुत आवश्यक है, क्योंकि जो व्यक्ति जनप्रतिनिधि चुनने के पूर्व दो जुन की रोटी के लिए जद्दोजहद करता नजर आ रहा था, वह महज 5 सालों में करोड़पति नहीं बल्कि अरबपति कैसे बन जाता है, तो आज के इस लोकतंत्र की कड़वी सच्चाई यह है कि “धंधा है पर गंदा है यह” , यह लोगों के विश्वास का हनन है, जनता के साथ विश्वासघात है ऐसे में सवाल यह भी है कि वास्तविक इस प्रकार के व्यापारिक लोकतंत्र की आवश्यकता है क्या, आखिर इस प्रकार के लोकतंत्र के क्या मायने हैं?, जहां जनप्रतिनिधि बाहुबली बनकर खुलेआम भस्मासुर की तरह घूम रहे हैं और सरे बाजार लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं ऐसे में भगवान महादेव नूमी जनता द्वारा इस प्रकार के भस्मासुर उनको पैदा करने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि साल दर साल लोकतंत्र में भस्मासुरों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है।
चिंतन का विषय यह भी है कि इस लोकतंत्र की हत्या को लोकतंत्र के अन्य तंत्र मुख दर्शक और मूकदर्शक बनकर देख रहे हैं, न्यायपालिका का दायरा भी दिनों दिन सीमित किया जा रहा है, कार्यपालिका, विधायिका की कठपुतली बनता जा रहा है और मीडिया के मुंह पर पट्टी बांधकर उसका बलात्कार किया जा रहा है ,वास्तविक में देखा जाए तो गांधी जी के तीन बंदरों की तरह लोकतंत्र के तीन तंत्र नजर आ रहे हैं और विधायिका हिटलर शाही की ओर बढ़ रही है ऐसे में वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए लगता है कि निकट भविष्य में लोकतंत्र का पतन और अंत होना निश्चित है।
बहर हाल लोकतंत्र, राजेश खन्ना की तरह नाव में बैठकर वह गुनगुनाने पर विवश है कि मझधार में नैया डोले तो मांझी पार लगाए, मांझी जो नाव डुबोये, उसे कौन बचाए।


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