विधायिका के पैरों तले कुचलता पत्रकारिता का नया दौर, पत्रकारिता को अस्तित्वहीन करने की हो रही है कोशिश 

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पत्रकारिता का नया दौर टूटता भरोसा, बढ़ता गुस्सा,कुछ इस प्रकार का चिंतनीय विषय जिस पर विगत दिनों पत्रकारिता जगत में चिंतन हुआ और चिंतन इस बात पर भी हुआ कि पत्रकारिता जगत की लक्ष्मण रेखा के क्या मायने हैं लेकिन इस विषय पर चिंतन का पत्रकारिता जगत पर कितना प्रभाव एवं निष्कर्ष निकलता है यह हम आने वाले समय पर छोड़ते हैं।
वास्तव में इसे पत्रकारिता का नया दौर कहें या भांड गिरी पढ़ने और सुनने में यह शब्द शायद ठीक ना लगे लेकिन कड़वे सच को स्वीकार नहीं करना भी बेमानी होगा, इस नए एवं आधुनिक दौर में पत्रकारिता जगत जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, इस पर (मीडिया ),लोकतंत्र के अन्य स्तंभों ने गहरा प्रभाव डाला है और इसे निष्क्रिय बनाने का प्रयासभी किया गया है। आज के समय में लोकतंत्र का एक तंत्र जिसका नाम विधायिका है वह सबसे ताकतवर और प्रभावशाली बनता जा रहा है ,इस तंत्र की कार्यशैली अन्य सभी लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर और निष्क्रिय बनाने वाली साबित हो रही है।
विधायिका जिसमें जनप्रतिनिधि जनता के सेवक के रूप में जनसेवक के रूप में शामिल होते हैं लेकिन लोकतंत्र के इस जादुई तंत्र में शामिल होने वाले जनसेवक जो कल तक रोडपति कहलाते थे ,जनसेवक का चोला ओढ़ते ही चंद सालों में अरबपति बन जाते हैं ,कैसे ? यह सवाल पूछने वाला कोई नहीं, ऐसे में आपका सवाल यह होगा कि क्यों लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला पत्रकारिता जगत या मीडिया है ना ,तो इस अवस्था में अगर कोई पत्रकार सवाल उठाता है, तब या तो उसे भांड गिरी करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है या फिर उसे ब्लैकमेलर का तमगा देकर अस्तित्व हीन कर दिया जाता है।
लोकतंत्र के स्तंभ विधायिका में शामिल होने वाले यूं तो जनप्रतिनिधि कहलाते हैं लेकिन जनता के सामने हेड और टेल नामक राजनीतिक सिक्के प्रस्तुत कर दिए जाते हैं आपको उसमें से एक चुनना है, घोर आश्चर्य की बात यह भी है कि आजादी के 75 साल के बाद भी लोकतंत्र के इस तंत्र में जाने के लिए किसी प्रकार की कोई शैक्षणिक योग्यता का कोई प्रतिबंध नहीं है, कुछ इसी का दुष्परिणाम यह है कि लोकतंत्र के इस तंत्र में छठे हुए गुंडे बदमाश जिसे आज के दौर में बाहुबली के नाम से जाना जाता है, शैक्षणिक योग्यता के नाम पर अंगूठा टेक भी चलेंगे ,आरक्षण की भी महत्वपूर्ण भूमिका इसमें है, भू माफिया ,शराब माफिया ,खनन माफिया आदि की आज विधायिका में बहुतायत हो गई है ,ऐसे में इस तंत्र के आधुनिक जनसेवक लोकतंत्र के अन्य तंत्रों को प्रभावित करते हैं।
बात की जाएगी पत्रकारिता जगत या मीडिया की तो कार्यपालिका ,विधायिका और मीडिया इस ग्रुप को कारपोरेट का नाम दिया गया है जिसमें तीनों क्षेत्र के दिग्गज शामिल होते हैं ,शासन ,प्रशासन की तमाम नीति अनीति का खुलासा प्रायोजित तरीके से किया जाता है, एक साधारण पत्रकार या अखबार की खबर के यहां कोई मायने नहीं है बावजूद इसके अगर कोई पत्रकार इन आधुनिक जनप्रतिनिधियों के कारनामों को उजागर करने की हिमाकत करता है तो साम दाम दंड भेद से उसकी कलम को तोड़ने की कोशिश की जाती है या फिर उसे ब्लैकमेलर घोषित कर दिया जाता है और कई को शहीद भगत सिंह की परछाई बना दिया जाता हैं।
कार्यपालिका के नुमाइंदों की कार्यशैली शत प्रतिशत विधायिका के आधुनिक जनप्रतिनिधियों के पदचिन्हों एवं मार्गदर्शन पर आधारित होता है इनकी कार्यशैली सिर्फ और सिर्फ कारपोरेट मीडिया में प्रकाशित या प्रसारित की जाने वाली खबरों पर आधारित होती है, सामान्य मीडिया कितने ही अपनी कलम लिख लिख कर तोड़ ले उसके कोई मायने नहीं होते हैं।
न्यायपालिका एक ऐसा तंत्र है जिसे बहुत पेंचीदा बना दिया गया है जिसमें अन्याय के खिलाफ लड़कर न्याय पाने में कई दशक लग जाते हैं , बाहुबली किस्म के जनप्रतिनिधि गवाहों और सबूतों के फेर में उलझा कर न्यायपालिका गुमराह कर देते हैं।
आधुनिकता के इस दौर में पत्रकारिता जगत निष्क्रियता एवं भुखमरी की कगार पर पहुंचता जा रहा है, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकारों ने तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए हुए हैं और सभी प्रकार की सरकारी सुविधाएं एवं सहायता दिन प्रतिदिन कम की जा रही है, सुरक्षा के नाम पर पत्रकारिता जगत आज उस निहत्थे मोगली की भांति प्रतीत होता है जिसे समाज में कई भेड़ियों ने घेर रखा है।
ऐसे में सवाल यह है कि बढ़ता गुस्सा जैसे शब्दों के क्या मायने रह जाते हैं और आधुनिकता के दौर में पत्रकारिता जगत आखिर किन किन बातों पर चिंतन करें और उस चिंतन का निष्कर्ष क्या? , रही बात लक्ष्मण रेखा की तो मीडिया पर लक्ष्मण रेखा खींचने का अधिकार लोकतंत्र में किसी भी तंत्र को नहीं है, जहां लोकतंत्र के कुछ तंत्र अपनी मर्यादा और लक्ष्मण रेखा को लांघ रहे हैं, क्या ऐसे अमर्यादित तंत्र मीडिया पर लक्ष्मण रेखा खींचने की चेष्टा कर पाएंगे?शायद नहीं, क्योंकि मीडिया जगत में आज भी कई भगत सिंह मौजूद हैं जिनकी कलम की एक चिंगारी भी असत्य के साम्राज्य को भस्म करने के लिए सक्षम है।


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