परिवर्तित हो रही है जनता के मन में, जनप्रतिनिधि की परिभाषा…

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करोड़ों अरबों खर्च करके जनता अपने क्षेत्र के विकास के लिए ,जनता के रोजगार के लिए, बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य के लिए, अपना जनप्रतिनिधि चुनकर लोकतंत्र का निर्माण करते हैं लेकिन उस लोकतंत्र के मंदिर में पहुंचकर जनप्रतिनिधि अपने फर्ज को दरकिनार करते हुए अपने कर्तव्य को भूलकर खुदगर्जी का चोला ओढ़कर व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि को महत्व देता है, इसे देखते हुए यह प्रतीत होता है की लोकतंत्र में जनता अपने जनप्रतिनिधि को चुनने की प्रक्रिया जिसे चुनाव कहा जाता है ,जनता के अरबों रुपए खर्च होने के बाद अब यह प्रक्रिया ,क्या  महज औपचारिकता रह गई है?, और क्या ऐसे में लोकतंत्र महत्वहीन होता जा रहा है?.

जनप्रतिनिधि जिनका मूल उद्देश्य जनसेवा एवं लोक कल्याण होता है वह जनप्रतिनिधि आजकल के परिदृश्य में जनसेवा को दरकिनार कर निज स्वार्थ को प्राथमिकता देते हुए पांच सितारा होटलों में विलासिता के आगोश में बैठे हैं।

सवाल यह है कि क्या जनता ने लोकतंत्र का निर्माण सिर्फ इसलिए किया है कि जनप्रतिनिधि अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपनी विचारधारा ,अपने उसूलों से समझौता कर जनता के उस विश्वास  की हत्या करके विश्वासघात करें, जिसने उन्हें अपना जनप्रतिनिधि बनाकर लोकतंत्र के मंदिर में स्थान दिया, ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या जनता ने अपना बहुमूल्य वोट इस प्रकार के दोगले  जनप्रतिनिधियों को  देकर व्यर्थ किया है ?, जो जनप्रतिनिधि को अपने उसूलों एवं अपने विचार धाराओं को धता बता कर जनता की समस्याओं को दरकिनार करते हुए अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देते हुए जिन्होंने बेंगलुरू, जयपुर, जोधपुर, भोपाल एवं दिल्ली के बड़े-बड़े रिसॉर्ट एवं पांच सितारा होटलों को लोकतंत्र की हत्या के लिए चुने।

ऐसे में जनता के मन में सवाल यह भी है कि वह ऐसे दोगले जनप्रतिनिधियों को करोड़ों अरबों रुपए खर्च करके क्यों चुने ?,क्योंकि चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि जनता के जनादेश को ठुकरा कर, चुनाव से पहले जिस दल की विचारधारा उनको फूटी आंख सुहाती नहीं थी, चुनाव के बाद महज चंद सिक्कों में अपने उसूलों एवं जनता के विश्वास को बेचने में जरा सा भी परहेज नहीं करते, ऐसे में जनता के चुने हुए लोकतंत्र के क्या मायने रह जाते हैं?.

जनता के मन में जनप्रतिनिधि द्वारा अपने विश्वास की हत्या होते हुए देखकर कई सवाल एवं संदेह उत्पन्न हो रहे हैं, जो लोकतंत्र में स्थिर सरकार के लिए  चिंतन का विषय बन सकते हैं ।

कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम एवं महत्वपूर्ण योगदान के बाद एक राजनीतिक दल अस्तित्व में आता है एवं वह जनता के विश्वास के पैमाने पर खरा उतरने के लिए चुनावी मैदान में वैचारिक एवं उसूलों के शस्त्र लेकर उतरता है और उन्हीं वैचारिक भिन्नता एवं उसूलों के आधार पर जनता का बहुमत हासिल होता है लेकिन चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि अपने मूल राजनीतिक दल को छोड़कर सत्ता पाने के लिए दूसरे विरोधी दलों में शामिल हो जाता है, तब राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के मन में भी उस जनप्रतिनिधि के प्रति अविश्वसनीयता घर कर जाती है और यहीं से उस राजनीतिक दल के पतन की शुरुआत हो जाती है, एवं बस यहीं से जनता के लोकतंत्र में विश्वास के  हनन की शुरुआत भी होती है एवं यही कारण  दीमक की भांति लोकतंत्र को दिन प्रतिदिन खोखला करते जा रहे है।

बाहर हाल जनता में चर्चा यही है कि जनप्रतिनिधि अगर इसी तरह स्वार्थी विचारधारा से प्रेरित होकर जनता के साथ धोखा करते रहेंगे, तो भविष्य में यह लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं होनी चाहिए।


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