दौर-ए-महामारी में सरकार की राहतों से आखिर पत्रकार ही वंचित क्यों…?

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दौर-ए-महामारी में सरकार की राहतों से आखिर पत्रकार ही वंचित क्यों…? (डॉ पवनेन्द्र नाथ तिवारी) लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, समाज का प्रतिबिंब,गुलामी से मुक्ति स्वतंत्र होने से आद्यतन आपातकाल के कठिन दौर में देश को हर विषम स्थिति में सहयोग करने वाले मीडिया/पत्रकारों को जिनका सहयोग लिये बिना कोई भी राजनैतिक दल अपना वजूद कायम नहीं रख सकता है ये जानने और समझने के बाद भी आखिर ऐसा क्या है कि, कभी पत्रकारों की चाटुकारिता करने वाले, सत्तालोलुप सत्ता में आते ही अपने तेवर उसी मीडिया/पत्रकार को दिखाते हैं जिनसे सत्ता में आने से पहले ये कभी अपने पक्ष में एक लाइन लिखवाने के लिये उनके (मीडिया कार्यालयों /पत्रकारों) चक्कर लगाया करते थे। वर्तमान में भी जब देश वैश्विक महामारी के दौर से गुजर रहा है इस विषम परिस्तिथि में भी ये ही मीडिया/पत्रकार बिना किसी शासकीय सहायता के अपनी पूर्ण कर्तव्य निष्ठा के साथ स्वयं और अपने परिवार के जीवन की चिंता किये बिना, स्वयं का जीवन संकट में डालकर राष्ट्र को अर्थात भारत माँ की सेवा को ही सर्वोपरी मानकर अपनी सेवाएं देने में किसी से भी पीछे नहीं हैं। ऐसे स्थान जहाँ लाखों रुपय का मासिक वेतन और अन्य अतरिक्त लाभ लेने वाले देश के नेता और प्रशासनिक अधिकारी जाने से भी कतरा रहे हैं वहां पर पत्रकार संक्रमण जैसे खतरों की चिंता छोड़ मरीज और उसके परिवार को आत्म संबल देने के साथ ही उसके अधिकारों से वंचित करने वाले शासकीय लापरवाहों को भी सबक सिखाने में पीछे नहीं रहे है। पत्रकारों की समाज देश के प्रति चिंता का ताजातरीन उदाहरण उज्जैन मध्यप्रदेश का आर.डी. गार्डी. मेडिकल कॉलेज है जो लपरवाहियों से देश मे मौत का केंद्र बिंदु बन चुका था, संभवतः यदि पत्रकारों ने अपने कर्तव्य का निर्वहन कर ,मरीजों के साथ बरती जा रही लापरवाही को उजागर न किया होता तो आज मौतों का आंकड़ा वर्तमान आंकड़े से दुगना होता। उज्जैन ही नहीं देशभर में यदि मरीजों की स्थिति में सुधार आया है ,उन्हें सुविधाएं मिलना प्रारम्भ हुई है तो उसका श्रेय पत्रकारों को ही जाता है कोई माने या न माने,मेरी इस निष्पक्ष समीक्षा से समाज का राजनैतिक और प्रशासनिक वर्ग निश्चित ही ये प्रश्न खड़ा कर सकता है कि,फण्ड की व्यवस्था सरकार कर रही है, प्रशासनिक अधिकारी कार्य देख रहे है तो इसमें पत्रकार की क्या भूमिका…?… तो यहां ऐसे समझदारों को यह स्पष्ट करना जरूरी है कि,ये सब तो पहले से था तो मौतों का ग्राफ क्यों बड़ा,मरीज बीमारी से कम लापरवाहियों से ज्यादा भयभीत क्यों थे,और इन सब लारवाहियों को जब मीडिया ने सार्वजनिक किया तो सुधार उसके बाद से ही क्यों आया ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो राज नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही और भ्र्ष्टाचार पर पत्रकारो की कर्तव्य परायणता को पुख्ता प्रमाडो से सिद्ध करती है, लेकिन पीड़ा जब होती है कि,लोकतंत्र को मजबूत करने वाले इसी चौथे स्तंभ को कमजोर करने में अन्य तीन स्तंभ कोई कसर नही छोड़ते है यहां तक तो ठीक है इस वर्ग का शोषण करने में भी पीछे नही रहते हैं।
महामारी के इस दौर में जब केंद्र ने 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज और राज्य सरकारों ने भी कई आर्थिक एवं अन्य राहत पैकेज विभिन्न तबकों के लिए घोषित किये है तो ये विश्वास था कि,केंद्र के 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज में निश्चित ही सरकारें लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को राहत पैकेज से वंचित नही करेंगी, लेकिन हुआ इसके विपरीत ही राहत तो दूर पत्रकारों को तो कोविड -19 में अधिकारियों और सत्ताओं ने दिया तो कुछ नही कुछ नही बल्कि रेल यात्राओं में पूर्व से मिलने वाली राहत तक को हालिया दौर के लिये स्थगित करने जैसे आदेश ले आये। सरकार ने पत्रकारों को कोई राहत तो प्रदान नहीं कि लेकिन पत्रकारों से सरकार की ये आशा जरूर है कि वे देश की केंद्र और राज्य सरकारों की छवि विश्वपटल पर उम्दा बानाने में कोई कसर न छोड़ें। मीडिया/पत्रकारों को अब ये सोचना होगा कि आखिर कब तक इन सत्ताधारियों के द्वारा शोषण,भेद-भाव,दोहरे चरित्र और दोहरी नीति का खेल पत्रकारों के साथ यूं ही खेला जाता रहेगा ? आज समाज के समक्ष यह यक्ष प्रश्न खड़ा है कि देश पर कितना ही बड़ा संकट आ जाए पर नेताओं,मंत्रियों प्रशासनिक अधिकारियों उनके परिवारों को मिलने वाली सुविधाओं पर नियंत्रण आखिर क्यों नहीं लगाया जाता ? प्रशासनिक अधिकारी अपनी प्रशंसा पाने के लिए मात्र पत्रकारों की चापलूसी करते नजर आते हैं वो ही समय आने पर आंख दिखाने से पीछे नहीं हटते। अब समय आ गया है कि पत्रकारों को आपसी मतभेद भुलाकर स्थानीय, प्रादेशिक, और राष्ट्रीय संकीर्णता की भावना, छोटे-बड़े संस्थानों की हीन भावनाओं को त्याग कर एक होना ही होगा,अपनी बिखरी शक्ति को पहचानना होगा, स्वहितों के कारण सम्पूर्ण मीडिया को समाज को असंगठित होने से बचाना होगा और अब ये समझना होगा।ध्यान दे जब ये सरकारें मात्र समाज विशेष के चंद हजार वोटों के लिए अपने नैतिक मूल्यों का त्याग कर देती है तो पत्रकार तो वो शक्ति है जो असम्भव को भी सम्भव बनाने की क्षमता रखता है कमी है तो एक मात्र की हम पत्रकार असंगठित होकर आपसी वर्गों में बंटे है, जिस दिन लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ अपने बिखराव को समेट कर एक हो गया तो वो दिन दूर नहीं जब देश की निर्णायक स्थित में इसकी अहम भागीदारी को कोई नकार नहीं पायेगा!
डॉ पवनेन्द्र नाथ तिवारी


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