राजनीतिक जानकारों का कहना है कि यह कहानी बड़ी पुरानी है ,जब महाराज पहली बार अपने गढ़ से हारे, विधानसभा के चुनाव में भी महाराज की एक ना चली, कहने को महाराज सवारी में आगे आगे चल रहे थे लेकिन शाही बग्गी में कोई और बैठ गया, बात लोकसभा चुनाव की हो तो वहां भी स्थानीय मुद्दों के चलते जनता की नाराजगी को भांपते हुए राहुल गांधी के खास कहे जाने वाले महाराज ने लोकसभा में ग्वालियर की सीट से चुनाव लड़ने की मंशा जाहिर की थी लेकिन नहीं मिली और पहली बार महाराज अपने गढ़ से हार गए ,हारने की टीस उस समय झलक पड़ी जब भूतपूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खास महाराज एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खास राजा साहब के बीच राहुल गांधी के समक्ष झड़प हुई जिसकी काफी चर्चा हुई भी थी।
सोनिया गांधी के खास एवं कांग्रेस के कद्दावर नेता कमलनाथ अपने बेटे को लोकसभा में अपनी परंपरागत सीट से जीता ले गए वहीं राजा साहब के पुत्र भी विधायक हैं और कमलनाथ सरकार में मंत्री भी, यहां भी जानकारों का कहना है कि हर पिता की मंशा यही होती है उसके बच्चे का भविष्य उज्जवल एवं सुरक्षित हो, ऐसे में महाराज का स्थान एवं राजनीतिक भविष्य दोनों सुरक्षित नहीं ,कयास यह भी लगाए जाने लगे कि महाराज मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाएंगे लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ ,फिर कयास यह लगाए जाने लगे की महाराज कांग्रेस की ओर से राज्यसभा में जाएंगे लेकिन यह पद भी खटाई में पढ़ता हुआ देख महाराज के सब्र का बांध टूट गया महाराज राजा साहब की गूगली को समझ तो गए थे और आउट हो जाएंगे यह भी जानते थे, अंततः महाराज ने यू-टर्न लिया,
सिक्के का दूसरे पहलू अगर हम देखें तो शिवराज सिंह चौहान और कैलाश विजयवर्गीय दोनों बीजेपी के कद्दावर नेता कहे जाते हैं और दोनों के पुत्र भी राजनीति में सक्रिय हैं, कैलाश विजयवर्गीय के पुत्र तो विधायक भी हैं और दोनों ही नेताओं पर दिल्ली मेहरबान है, ऐसे में महाराज की बीजेपी में एंट्री हो गई है और महाराज का राज्यसभा में जाना भी लगभग तय माना जा रहा है, महाराज समर्थक विधायकों ने भी इस्तीफा दे कर महाराज के साथ जाने का फैसला कर लिया है ऐसे में अगर मध्य प्रदेश में पुनः चुनाव होते हैं और महाराज समर्थक विधायकों को बीजेपी अपना टिकट देती है तो बीजेपी के पुराने उम्मीदवार या यूं कहें कि हारे हुए उम्मीदवारों का राजनीतिक भविष्य अंधकारमय हो सकता है ,वहीं महाराज समर्थक चुनाव हारते हैं तो बीजेपी को खासा नुकसान हो सकता है ऐसे में फिर जानकारों का कहना है कि राजा तो चिंता मुक्त हो गए हैं लेकिन महाराजा अपनी फौज को लेकर अभी भी चिंतन कर रहे हैं वहीं महाराजा के उस पाले में भी दो पुत्र मोहि थे और अब दूसरे वाले में भी, लेकिन कुछ बातों के परिणाम को समय पर ही छोड़ देना उचित होगा।
लेकिन इन सब बातों मैं हम उनको भूल गए जिनका यह तंत्र है अर्थात लोकतंत्र, यहां भी जानकारों का यह कहना है कि सरकार चाहे किसी की भी हो कहलायेगी जनता की ही ,विधायक ,सांसद ,मंत्री, मुख्यमंत्री यह सब तो जनता के सेवक हैं और आजकल यह जनता के सेवक होटलों एवं रिसोर्ट में जनता की समस्या को लेकर मंथन कर रहे हैं राजनीतिक जन सेवकों का मानना है कि अगर सरकार जनहित में काम नहीं करती है तब वह अपने उसूलों से भी समझौता करने को तैयार है जनता भी ऐसे जनप्रतिनिधियों को चुनकर अपने आप को धन्य महसूस कर रही है, मीडिया को भी इस चिंतन से दूर रखा गया है कहने को मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है लेकिन इसे भी मुक बधिर बनाने की कोशिश की जा रही है।
इस पूरे परिदृश्य का निचोड़ यह है कि कहने को लोकतंत्र है लेकिन शासन राजा महाराजाओं का ही चल रहा है एवं यह भारत के राजनीतिक भविष्य एवं लोकतंत्र के लिए के लिए अत्यंत चिंतनीय विषय है।
