उज्जैन,गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर मीडिया द्वारा एक परिसंवाद का आयोजन हुआ ,जिसमे इंदौर रोड़ पर मोती नगर निवासियों को भरी ठंड में बेघर करने की घटना पर जब प्रश्नचिन्ह लगाया गया ,तब उज्जैन कलेक्टर शशांक मिश्र ने सफाई देते हुए कहा कि जैसा कि कहा और दर्शाया जा रहा है कि सेतु निगम की ज़मीन के मोती नगर निवासियों को आननफानन में वहाँ से बेदखल कर दिया गया, वास्तविकता यह है कि यह कोर्ट का आदेश दो साल पुराना है जिसकी अवमानना के चलते यह कार्यवाही की गई ,ऐसे में सवाल यह उठता है आननफानन में इतने दबाव के बाद ही सरकार ने मोती नगर निवासियों को दूसरी जगह पट्टे देने की जरूरत क्यों पड़ी ,2 साल पुराने कोर्ट के जमीन खाली कराने के फैसले की जानकारी के बाद भी सरकार द्वारा वैकल्पिक जगह की व्यवस्था क्यों नहीं कि गई ,जबकि शासन प्रशासन को यह भलीभांति ज्ञात था कि सेतु निगम की जमीन खाली कराने पर लोगों को कहीं और जगह देना होगी,या फिर शासन प्रशासन यह चाहता था कि कोर्ट के आदेश का पालन करवा कर पल्ला झाड़ लिया जाय ,जिसको जहां जाना है वहाँ जाए, सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं था,घटना क्रम को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है की मोती नगर निवासियों के घर तोड़ने के मुद्दे का राजनीतिकरण किया जा कर जमकर सहानुभूति जताने का प्रदर्शन किया गया, घरों के टूटने के बाद जहां सांसद अनिल फिरोजिया ने लोगों से सहानुभूति जताते हुए आर्थिक मदद का ऐलान किया ,तो फिर सरकार ने भी लोगों को धर्मशाला में से अपने नए घरोंदे बनाने के लिए पट्टे दिए ,जबकि सरकार के पास भरपूर समय था मोती नगर के विस्थापितों को अन्य जगह बसाने का ।
बहरहाल मोती नगर के निवासियों को प्रशासन ने दिल पर पत्थर रख कर खाली करवाया ,लेकिन प्रशासन समय रहते नीव का पत्थर कहीं और रख देता तो शायद दिल पर नहीं रखना पड़ता,वहीं शासन दो साल से वैकल्पिक व्यवस्था कर देता तो शायद उन्हें सहानुभूति का श्रेय न मिल पाता ,सिक्के का दूसरा पहलू यह भी हो सकता था कि इतना बवाल ना हुआ होता तो सरकार के लिए हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा हो जाता ,लेकिन ऐसे में सवाल भी उठता है कि शासन प्रशासन की लोगों के प्रति क्या जिम्मेदारी है?, ओर क्या जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति यही उत्तरदायित्व हैं? ऐसे में जनता के मन मेे सवाल उठता है कि गणतंत्र के वास्तविकता में क्या यही मायने हैं?
