काश मैं यह कह पाता कि, स्वामी विवेकानंद इज बैक,सुभाषचंद्र बोस इज बैक ,महात्मा गांधी इज बैक,सरदार पटेल इज बैक,लाल बहादुर इज बैक,इंदिरा इज बैक,अटल इज बैक ,लेकिन यह शायद मेरी एक कल्पना मात्र ही होगी ,क्योकि हक़ीक़त में ये शायद यह संभव नहीं ,यह शायद संभव हो कि किसी की सूरत किसी से मेल खाती हो लेकिन सिरत भी मेल खाये ये संभव नहीं , हर व्यक्ति की एक अपनी विचारधारा ,अपने उसूल ,अपनी कार्यशैली ,अपना नज़रिया होता है और यही उन्हें औरों से अलग बनाते हैं, यह कतई भी ज़रूरी नहीं कि किसी का किसी के जैसा दिखना ,या किसी महानतम हस्ती के परिवार का वंशज भी उस महानतम हस्ती का प्रतिबिंब हो ।
हर महानतम सख्सियत ने खुदको उस आग में समर्पित कर कुंदन का स्वरूप पाया है, उनके कर्मों ने इतिहास गढ़ा है,कोई कितना भी प्रयास क्यों न करले ,लेकिन कोई सम्राट विक्रमादित्य, छत्रपति शिवाजी ,महाराणा प्रताप,किशोर कुमार, मोहम्मद रफी,लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन,राज कपूर, सचिन तेंदुलकर, ध्यानचंद, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल,सत्यजीत रे,जमशेदटाटा ,ऐ पी जे अब्दुल कलाम ,मेरी कलम लिखते लिखते शायद घिस जाएगी लेकिन भारत के महानतम इतिहास के किसी एक पन्ने की भी शायद कभी पुनरावृत्ति ना हो पाए।
लेकिन अजीब विडम्बना है, भारत जहाँ कहने को लोकतंत्र विद्यमान है,लेकिन जहां आज भी परिवारवाद को ही प्राथमिकता से ही प्रदर्शित किया जाता है, अगर महानतम व्यक्तित्व परिवार से अग्रेषित होता तो राष्ट्रपिता के मायने बदल जाते,कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपनी पहचान स्वयं बनाता है, एवम उसके कर्म उसे महानतम इतिहास में जोड़ देते हैं, यहाँ “बैक “शब्द का कोई स्थान एवम औचित्य नहीं रह जाता।
ऐसे में बेक अगर सम्भव होता तो मैं यह कहता कि स्वामी विवेकानंद इज बैक…..
लेकिन वास्तविकता यह कहती है कि
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।
महान कार्य के लिए महान त्याग करने पड़ते हैं। – स्वामी विवेकानंद
