चिंतन-आधुनिकता की दौड़ और धन कमाने की होड़, हमें इतना पागल कर देगी ,इसकी कभी किसी ने कल्पना नहीं की थी ,जाने कहां गुम हो गए वह दिन जब पूरा परिवार इकट्ठा रहता था ,दुख सुख में सबका साथ होता था, बुजुर्गों का मार्गदर्शन, अनुशासन परिवार पर बाँधे रहता था ,पूरा गांव एक परिवार की तरह प्रतीत होता था ,खेतों में हल चलाए जाते, गोधूलि बेला में हमारी गय्या जब जंगल से लौटती थी तब उसके पांव से उड़ती धूल और ढलते सूरज की वह लालिमा ,दृश्य सच में अदभुत होता था ,शाम को गांव की चौपाल सजती थी, अपनी संस्कृति के अनुसार पहनावे से घर की महिलाएं सुसज्जित होती थी ,बच्चियां गुल्ली डंडे एवं लंगडी पव्वा खेलती थी, परिवार का हर सदस्य एक दूसरे का ध्यान रखता था सादा एवं शुद्ध खानपान होता था।
गाय का शुद्ध दूध, घी, छाछ ,मक्खन का स्वाद मन को संतुष्ट कर देता था, गाय के गोबर खाद से सिंचित सब्जियां एवं फसलें न सिर्फ खानपान की दृष्टि से शुद्ध एवं स्वादिष्ट होती थी बल्कि वह स्वास्थ्यवर्धक भी होती थी।
फिर समय का फेर बदला पश्चिमी सभ्यता का समावेश होने लगा गांव में टीवी आए, गांव की चौपाल सुनी होती गई ,गुल्ली डंडा एवं लंगडी पव्वा की जगह मोबाइल ने ले ली, रहन सहन खानपान अब बदलने लगा था ,परिवार को बुजुर्गों के मशवरे की आवश्यकता नहीं थी ,परिवार अब आधुनिक एवं समझदार हो चला था, परिवार को अब आधुनिकता के संसाधनों ने वशीभूत कर लिया था, अब गांव का युवा खेती नहीं बल्कि शहर की चकाचौंध मे रहकर रोजगार की तलाश करने लगा था, घर के बुजुर्ग अब खंडहरों के बीच अपने अंतिम पड़ाव को तलाश रहे थे, गांव का फकीर अक्सर यह गीत गुनगुनाता था, “कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या, कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या …..,मैने कुछ लोगों को कहते सुना ,यह 21 वी सदी है इसमें जीवन जीने की यही शैली है।
यह चिंतन का विषय कि हम हमारे परिवार को हमारी संस्कृति को कहां ले जा रहे हैं ,पहले परिवार के हर सदस्य मैं एक दूसरों के प्रति अपनापन होता था, आज ना परिवार है, ना अपनापन है, और ना किसी के लिए किसी के पास समय है ,परिवार का हर सदस्य डिस्पोजल बनकर रह गया है, सुख सुविधा के संसाधनों की जुगाड़ में पूरा जीवन खर्च हो गया, उसके बाद नसीब हुआ एक पलंग एवं अकेलापन, बस यही फर्क 19-20 मैं मैंने महसूस किया और यह भी महसूस किया की “क्या हमारे जीवन का लक्ष्य एवं उद्देश्य यही था”?
