राजनीति में नैतिकता का, क्या है आधार?

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लोकतंत्र में  जनता राजनीतिक दलों की विचारधारा एवं देशहित, राज्यहित को मद्देनजर रखते हुए, जनादेश जिस राजनीतिक दल को दें, वह सरकार बनाएं एवं जनता के विश्वास पर खरा उतरे  ,जनता के जनादेश का लोकतंत्र में नैतिकता का आधार यह होता है।

लेकिन बदलते वक्त के साथ साथ  व्यक्तिगत स्वार्थों  को प्राथमिकता  देने के चलते राजनीतिक दलों में बढ़ोतरी होती गई एवं जनता को किसी एक दल को चुनना मुश्किल होता गया लेकिन अपनी समान विचारधारा एवं उद्देश्य को लेकर जब कोई एक से अधिक राजनीतिक दल चुनाव के पूर्व एक होकर जनता के सामने जाते हैं तब जनता को उस संगठन को उनके पंचवर्षीय सामूहिक एजेंडे  को देखते हुए चुनने में आसानी हो जाती है लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जब चुनाव में मिले जनादेश को सर्वोपरि ना मानकर राजनीतिक दल अन्य विपरीत विचारधारा के राजनीतिक दलों के साथ समझौता करते हैं।, तब क्या जनता के जनादेश के साथ नैतिकता के आधार पर न्याय कहलाता है?

राजनीतिक नैतिकता को महाराष्ट्र मैं देखें तो बीजेपी शिवसेना का समान विचारधारा का संगठन कई सालों से अस्तित्व में है वहीं कांग्रेस एक अकेली पार्टी थी, लेकिन वैचारिक मतभेद नहीं बल्कि स्वार्थ के चलते कांग्रेस, एनसीपी , एवं  बीजेपी,  शिवसेना का विच्छेदन  हुआ यहां देखने वाली बात यह है कि  बीजेपी शिवसेना एवं कांग्रेस एनसीपी में वैचारिक मतभेद नहीं है अर्थात विचारधाराएं समान है लेकिन सरकार  बनाने के लिए जब भी साथ साथ एक मंच पर आए ,तो अपने स्वार्थ के चलते, तो क्या ऐसे मेल को क्या जनता के साथ नैतिकता के आधार पर न्याय कहा जाए?कदापि नहीं

ऐसे में सवाल यह उठता है कि चुनाव के वक्त समान विचारधारा, देशहित एवं संयुक्त जनहित के उद्देश्य का एक मंच पर जनता के सामने  ढोंग क्यों, और क्यों हमारा संविधान  ऐसे ढोंग की इजाज़त देता है, जो कुछ समय के बाद जनता के साथ विश्वासघात साबित होता है, वहीं चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग करने के बाद जनता के हाथ मानों काट दिए जाते हैं एवं राजनीतिक दल खुलेआम जनादेश का अपमान करते दिखाई पड़ते हैं।

बरहाल महाराष्ट्र के चुनाव में जनादेश के साथ खिलवाड़ का नंगा नाच सबने देखा ,उच्चतम न्यायालय ने 27 नवंबर कि शाम को फड़नवीस सरकार को बहुमत साबित करने का आदेश दिया है,” यहां सभी राजनीतिक दलों का दावा है कि  नैतिकता के आधार पर जीत हमारी होगी” लेकिन यहां जनता का सवाल राजनीतिक दलों से है कि “पहले वे अपने अंदर झांक कर देखें कि क्या उनके अंदर नैतिकता बची है और क्या उन्होंने नैतिकता के आधार पर जनता के साथ न्याय किया है?”

लोकतंत्र में चुनाव के बाद विपरीत विचारधाराओं वाले राजनीतिक दलों के सरकार बनाने के चलते, गठजोड़ एवं जनप्रतिनिधियों की व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के लिए खरीद फरोख्त  कर दल बदलने की असंवैधानिक प्रक्रिया में बढ़ोतरी होने से यह न सिर्फ जनता के साथ नैतिकता के आधार पर अन्याय है बल्कि इस प्रक्रिया से देश का लोकतंत्र ,अंत की ओर अग्रसर होता दिखाएं पड़ता है, भारतीय राजनीति के लिए एवं लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत चिंतनीय विषय है लोकतंत्र में जनता के विश्वास बने रहने के लिये इसका संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक तरीके से  हल निकालना आवश्यक है।

 


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