एक साधारण से प्राइवेट स्कूल में बच्चा जब एक क्लास आगे जाता है तो उसका अनुमानित सालाना खर्च 50 से 80 हजार रुपए होता है, अगर किसी के दो बच्चे हैं तो इसको दुगना कर दीजिए याने लगभग सवा लाख होता है, एक मिडिल क्लास जिसकी मासिक इनकम 10 से 15 हजार रुपए मान सकते हैं, यानी सालाना लगभग एक लाख 20 हजार से एक लाख 80 हजार सालाना ,अर्थात हम अपनी सालाना इनकम का 80 से 90% बच्चों की शिक्षा पर खर्च करते हैं ,किसी व्यक्ति के दो बच्चे हैं तो उनको ग्रेजुएट तक की पढ़ाई का अनुमानित खर्च लगभग 25 से 30 लाख रुपए आएगा।
कहने का तात्पर्य है कि हम इतना भारी भरकम खर्च अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करते हैं, यह जाने बिना कि हमारे बच्चों को क्या शिक्षा दी जा रही है, और जो दी जा रही है क्या वह उनके भविष्य के लिए आवश्यक है क्या वह शिक्षा उन्हें भविष्य में रोजगार दे पाएगी?, सरकारी स्कूलों की बात करें तो सरकार हजारों रुपए शिक्षकों पर खर्च करती है, बच्चों की शिक्षा निशुल्क होती है ,मध्यान भोजन भी मिलता है, लेकिन सरकारी स्कूलों की जर्जर व्यवस्था के चलते वहां बच्चों का अभाव होता है ,जबकि सरकारी एवं प्राइवेट दोनों में सरकार द्वारा निर्धारित बोर्ड एवं उसके आधार पर पाठ्यक्रम 2,4 किताबों को छोड़कर लगभग समान होता है ,सवाल फिर वही है की प्राइवेट स्कूलों की चकाचौंध देखकर हम लाखों रुपए खर्च करते हैं या कम सुविधाओं के सरकारी स्कूल को चुनते हैं लेकिन दोनों जगह ही बच्चों को सालों से भेड़िया धसान जैसी शिक्षा दी जा रही है जो उनके वास्तविक जीवन, या यूं कहें कि रोजगार के लिए कतई भी आवश्यक नहीं है।
सालों से हमारे बच्चों को बाबर, अकबर ,औरंगजेब ,मोहम्मद गजनवी आदि आदि के बारे में जानकारी दी जाती है ,उन्होंने किस तरह लड़ाइयां की एवं हिंदुस्तान में कत्लेआम किया , हिंदुस्तान के युवाओं को हिंदुस्तान के ऐतिहासिक ग्रंथों एवं हमारी ऐतिहासिक संस्कृति के बारे में जानकारी नहीं दी जाती, हनुमान जी संजीवनी बूटी किसके लिए लाए थे हमारे युवाओं को यह ज्ञात नहीं है ,लेकिन उन्हें अकबर की 7 पुश्तो की जानकारी है लेकिन इसके जिम्मेदार हम एवं हमारी सरकारें हैं हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम यह जाने कि हमारे बच्चों को क्या शिक्षा दी जा रही है एवं सरकार से कभी मांग नहीं की कि शिक्षा व्यवस्था में किस तरह के बदलाव लाने की आवश्यकता है एवम इस शिक्षा से उनके भविष्य एवं रोजगार के क्या मायने है, नतीजतन लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी जब हमारा युवा ग्रेजुएट होता है तब वह एक पढ़ा-लिखा बेरोजगार कहलाता है।
शिक्षाविदों के मतानुसार इसका प्रमुख कारण है हमारी सरकारों का शिक्षा प्रणाली में तकनीकी शिक्षा पर जोर नहीं दिया जाना है ,जापान, कोरिया जैसे छोटे देश होने के बाद भी यह विकसित देशों की गिनती में आते हैं, उसका कारण है तकनीकी शिक्षा को प्राथमिकता देना, यही कारण है कि इन देशों में युवाओं के बेरोजगार होने का प्रतिशत नहीं के बराबर है ,जहां का युवा तकनीकी शिक्षा से परिपूर्ण हो होने के चलते आत्मनिर्भर है ।
भारत में यह भी कटु सत्य है कि शिक्षा का क्षेत्र खुला व्यापारिक हो गया है ,अरबों की कमाई के चलते हर दूसरा राजनीतिज्ञ इससे जुड़ा है एवं जानबूझकर सरकारी शिक्षा तंत्र को जर्जर बनाए हुए हैं।
बाहर हाल जनता को अब जागरूक होने की आवश्यकता है ,अनावश्यक एवं रोजगारहिन शिक्षा व्यवस्था के चलते पालकों का आर्थिक शोषण किया जा जा रहा है वहीं चकाचौंध की आड़ में उनकी जेबे काटी जा रही है लेकिन क्या सारा दोष सरकारों का है?, कटु सत्य यह भी है कि हमारे पास हमारे बच्चों के भविष्य लिए समय नहीं है हम कभी यह जानने की कोशिश नहीं करते कि हमारे बच्चे पढ़े लिखे होने के बाद भी आखिर बेरोजगार क्यों हैं।
भारत में एक और गैर वाजिब प्रणाली है, वह है आरक्षण, जिसने युवाओं के बीच जातिगत लकीरें खींचने का काम किया है ,गरीब ,पिछड़ा किसी भी जाति या धर्म का हो उसे सरकार द्वारा आर्थिक मदद देकर हर युवा को काबिल बनाने की आवश्यकता है, अर्थात कोई युवा आरक्षण के सहारे डॉक्टर है लेकिन क़ाबिल नहीं, तो ऐसे में सरकार की आरक्षण नीति के कोई मायने नहीं रह जाते। सरकार को शिक्षा नीति में चिंतन कर एक देश, एक समान शिक्षा नीति लाने की आवश्यकता है।
