चुनाव आते ही नेताओं के भीतर का असली चेहरा जनता के सामने उजागर होने लगता है, कोई विकास का मुद्दा नहीं, कोई अमन चैन भाईचारे की बात नहीं ,कोई देशहित की बात नहीं, राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के पास कोई मुद्दा नहीं ,सिर्फ और सिर्फ, सत्ता पाने की होड़ में कौन किसको कितनी गालियां दे सकता है, कितना एक दूसरे को नीचा दिखा सकता है, और इसके लिए जितना नीचे गिर सकते हो, गिरो, ऐसा प्रतीत होता है कि मानो चुनाव एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की प्रतियोगिता है जिसमें मर्यादा जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं ,लेकिन यहाँ जनता को इस बात पर गौर करना होगा कि राजनैतिक दलों के लिए यह सिर्फ चुनाव के समय तक ही सीमित होता है ,जनता के वोट पाने के लिए अनेक राजनैतिक दलों के नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं ,मर्यादाओं की सीमा लांघ जाते हैं, कुछ राजनीतिक दल जो कल तक एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे अर्थात जिनका राजनैतिक दृष्टिकोण एक दूसरे से मेल नहीं खाता है वह आज अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए एक मंच पर विराजमान है, और इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि चुनाव के बाद, एक दूसरे के विरोधी दल सत्ता पाने के लिए आपस में समझौता कर सरकार बना लेते हैं ,इससे स्पष्ट होता है कि राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा चुनाव के दौरान जनता को गुमराह किया जाता है, चुनावी दौर में नेताओं द्वारा लोगों को धर्म, जाति, समाज के आधार पर बांटना, एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष को बढ़ाना, महिलाओं के मान सम्मान को सरे बाजार तारतार किया जाना, इस प्रकार का प्रपोगंडा रचा जाता है ,चुनावी लाभ के लिए, वर्ग विशेष को मोहरा बनाकर ऐसा प्रदर्शित किया जाता है कि मानों वह असुरक्षित है एवं कुछ राजनीतिक दलों की सरकार बनने पर ही वह भारत में सुरक्षित हो सकते हैं ,जबकि वास्तविकता यह है कि सरकार किसी भी राजनैतिक दल की हो ,भारत के हर नागरिक को एक समान अधिकार प्राप्त हैं ,चाहे वह किसी भी धर्म का हो ।
विश्व के किसी भी देश में प्रधानमंत्री जैसे गरिमामयी पद को यूँ सरे बाजार अपशब्दों से संबोधित नहीं किया जा सकता, लेकिन ऐसे में सवाल यह उड़ता है कि, क्या भारत का संविधान राजनैतिक दलों के नेताओं को इसकी छूट देता है?
एक तरफ राजनीतिक दल महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं ,महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के बात भी होती है ,वहीं दूसरी ओर सरे बाजार चुनावी मंचों से महिलाओं की लज्जा का चीर हरण किया जाता है,ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या महज कुछ घंटे चुनाव प्रचार पर रोक ,इस अपराध का प्रायश्चित है ?, प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नेताओं की मनोवृत्ति में ,देश के रक्षक, धर्म, जाति, समाज, महिलाओं के लिए यही आदर और सम्मान है?, जो चुनावी मंत्रों से झलक रहा है ,क्या अभिव्यक्ति की आजादी के यही दुष्परिणाम है ?,और क्या लोकतंत्र के यही मायने हैं?कुछ ऐसे सवाल जनता के मन में उत्पन्न हो रहे हैं, लेकिन जनता अब जागरूक हो चली है ,यह चुनावी परिदृश्य जनता देख रही है, चुनावों के चलते जनता के पास मौका है ,नेताओं के असली चेहरे एवं चरित्र को पहचानने का ।
जनता को धर्म, जाति, समाज के आधार पर बांटने वालों को पहचानकर ,देेशहित को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है, लोकतंत्र के इस महापर्व में जनता को इस चुनावी परिदृश्य पर गहन चिंतन कर अपने मताधिकार का प्रयोग करके, उपयुक्त नेता या प्रतिनिधि को चुनने की आवश्यकता है क्योंकि अगले 5 साल देश की प्रगति, देश की सुरक्षा एवं युवा पीढ़ी के भविष्य का आधार यही होगा।
