“क़ाबिल की अभिलाषा”

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काश मैं भी एक राजघराने से होता ,तो शायद मुझे भी सालों तक कुर्सियां नहीं उठानी पड़ती, मैं भी सीधे प्रधानमंत्री ,अध्यक्ष , महासचिव बनने के सपने देख पाता लेकिन अफसोस ,मैं भारत का एक गरीब ,एक किसान, एक आम कार्यकर्ता, एक आम नागरिक हूं ,मैं तो महारानी के पीछे चलता हुआ वह नौजवान हूं, जिसे महारानी के पल्लू से झड़ने वाले एक मोती की लालसा है ,मैं भारत का वह क़ाबिल भविष्य हूं, जिसे इंतजार है नेताजी के कुत्ते का न खाया हुआ बिस्किट नसीब होने का , मेरा ऐसा नसीब कहां कि मेरा चेहरा भी भारत के लोकतंत्र के आईने में नज़र आ जाए ,क्या वाकई में भारत के लोकतंत्र का आईना एक क़ाबिल चेहरे को देखने के लिए जद्दोजहद करता नजर आएगा ।
लेकिन यह भी अटल सत्य है कि भारत में महात्मा का दर्जा ,भारत रत्न और काबिलियत की अहमियत तब ही नसीब होती है, जब तक उसकी तस्वीर पर फूल ना चढ़ जाएं ।
क्या कभी यह सुना है कि कलेक्टर साहब नहीं रहे तो कल से उनका बेटा कलेक्टर होगा या एसपी साहब के बेटे आज से एसपी कहलाएंगे शायद नहीं लेकिन शायद यह बाबर से लेकर अकबर तक या यूं कहें कि राजा महाराजाओं के जमाने की याद जरूर ताजा कर देता है, लेकिन यह आजकल के राजनैतिक परिदृश्य में संभव है ,कहने को समय बदल चुका है लेकिन आज भी भारत के राजनैतिक गलियारे में काबिलियत दम तोड़ती स्पष्ट देखी जा सकती है ,और कड़ी जद्दोजहद से अगर कोई काबिलियत भारत के लोकतंत्र के आईने में नजर आ भी जाती है ,तो दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और एक एक पत्थर उठाकर सब उस आईने को चकना चूर करने का संकल्प लेते हैं ,क्योंकि वह जानते हैं कि फिर बरसो लगेंगे एक पुष्प की अभिलाषा को सार्थक होने में ।अभिलाषा की बात छिड़ी है ,तो कुछ पंक्तिया भारत की अभिलाषा पर,
रानी लक्ष्मी बाई का हाथ थामा होता, तो कुछ और बात होती ,नेताजी के सपनों को साकार किया होता तो कुछ और बात होती ,सरदार गर सरदार कहलाते, तो कुछ और बात होती, अटल के इरादों को पहचाना होता , तो कुछ और बात होती ,श्रीमद भागवत गीता के उपदेशों को जीवन में साकार किया होता तो कुछ और बात होती है, मुफ्त का चश्मा ना पहनकर ,खुली आंखों से भारत के सच्चे सपूतों को देखा होता तो कुछ और बात होती।
आवश्यकता है ,चश्मा उतार कर भारत के उज्जवल भविष्य की ओर देखने की,पहचानने की ।


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