हिंदुओं में असहिष्णुता ?

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19 जनवरी 1990 का दिन वह दिन था जो एक हिंदू कभी भूल नहीं सकता, जिसे हम हिंदू असहिष्णुता की पराकाष्ठा कहें तो शायद गलत ना होगा लेकिन यह विडंबना है कि इस असहिष्णुता को आज तक भारत के न किसी हिंदू समाज ने ना किसी राजनीतिक संगठन ने और ना किसी सरकार ने महसूस किया।
टीका लाल टपलू, जस्टिस नीलकांत गंजू, प्रेम नाथ भट्ट जैसे सैकड़ों नाम है, जिनको सरे बाजार कत्ल कर दिया गया सैंकड़ों कश्मीरी पंडितों की महिलाओं का बलात्कार कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया और 3 लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर से भागकर अपनी जान बचाई और इस असहिष्णुता की पराकाष्ठा को पूरा हिंदुस्तान और हिंदुस्तान की सरकार मूक दर्शक बनकर देखती रही और आज उन लोगों के दिल पत्थर के हो जाते हैं ,जब एक सेना का जवान आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो जाता है, वहीं आतंकियों को बचाने वाले उन पत्थरबाजों एवम आतंकियों की मौत पर हमदर्दी पैदा हो जाती है ,और देश में कुछ लोगों को असहिष्णुता महसूस होने लगती है, यह वह लोग हैं जिनको हिंदुस्तान की जनता ने सर आंखों पर बिठाया दौलत दी, शोहरत दी यहां तक की भारत के लोकतंत्र में उच्चतम स्थान दिया ,क्यों भारत में रह रहे सवा सौ करोड़ देशवासी, सारे राजनीतिक दल जिनमें हिंदू मुस्लिम सब निहित है ,किसी एक ने भी उन लाखों विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं के लिए असहिष्णुता महसूस नहीं की और ना ही उनके पुनर्वास के लिए पहल की ।
भारत मैं इस घोर निंदनीय घटना के बावजूद भारत के हिंदू समाज ने भारत में रह रहे अन्य वर्गों को क्षणिक मात्र भी दोष ना देते हुए असहिष्णुता महसूस नहीं की ,भारत का लोकतंत्र एक ऐसा तंत्र है जिसने भारत में रह रहे हर वर्ग को न सिर्फ स्थान दिया बल्कि सम्मान भी दिया लेकिन इसे भारत के लोकतंत्र की विडंबना ही कहेंगे कि आजादी के 70 साल के बाद भी भारत में रह रहे हर वर्ग के लिए “एक देश एक कानून “को लागू करने की हिम्मत किसी राजनीतिक दल या किसी सरकार ने नहीं दिखाई, क्या आज की असहिष्णुता इसी का खामियाजा है, कहने को भारत में सवा सौ करोड़ देशवासी हैं लेकिन कानून सबके लिए अलग-अलग, क्या अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक देश के लोकतंत्र को निर्धारित करेंगे ,आखिर क्यों ना देश में, हम दो हमारे दो का पाठ हर वर्ग के लिए लागू हो , देश की एकता अखंडता, देश भक्ति ,सर्वधर्म समभाव का भार समाज के हर वर्ग मैं सही अनुपात में बटा होना आवश्यक है, दिन प्रतिदिन वातावरण में समानता के अधिकार की परिभाषा वोटों की राजनीति के चलते बदल रही है नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है, राजनीतिक संगठन अपने हित के लिए लोकतंत्र की दिशा को परिवर्तित कर रहे हैं जोकि लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा सकता है।
अगर भारत अपने इतिहास को पीछे मुड़ कर देखता है तो उसे वह हिंदुस्तान दिखता है ,जिसमें हिंदुओं की असहिष्णुता को व्यक्त करने के लिए कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं ,लेकिन भारत दुनिया में एकमात्र एक ऐसा देश है जिसने हर धर्म, समाज के हर वर्ग को संजोया है और सर्व धर्म समभाव के जज्बे को साकार किया है और स्वयं महादेव बनकर बुराइयों को अपने नीलकंठ में समाहित किया ।
यह एक ऐसा विषय है जिस पर समाज के हर वर्ग, हर धर्म को चिंतन करने की आवश्यकता है क्योंकि ताली बजाने के लिए दो हाथों की आवश्यकता होती है ,जिस दिन एक हाथ में दूसरे हाथ से दूरी बना ली उस दिन लोकतंत्र की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाएगा ।
आज जरूरत इस बात की है कि भारत के हर नागरिक को धर्म ,जाति ,समाज से ऊपर उठकर अपनी मानसिकता में बदलाव लाकर देशहित के बारे में विचार करने की, और आवश्यकता इस बात की भी है की राजनीतिक दल अपने स्वार्थ को त्यागकर राष्ट्रहित के लिए एक ऐतिहासिक कदम “एक देश एक कानून” के लिए एक जाजम पर बैठे ,यही एकमात्र रास्ता भारत के उज्जवल भविष्य को अपने मुकाम तक पहुंचा सकता है।


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