अलग अलग विचारधारा ,नज़रिये एवं उद्देश के चलते लोकतंत्र में अलग अलग राजनैतिक पार्टियों का जन्म होता है, लेकिन इसे लोकतंत्र की विडंबना ही कहेंगे की ,चुनाव के समय जनता के सामने एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाने वाले राजनेता एवं राजनैतिक पार्टियां, चुनाव के बाद सत्ता के गठजोड़ में ऐसी एकता दिखाती है ,जैसे उनमें कोई मतभेद है ही नहीं ।
धरती और आकाश को मिलते या यूं कहे की शेर और बकरी की मित्रता को कभी किसी ने नहीं देखा , लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ राजनीति में संभव है ,अलग अलग विचारधारा और उद्देश्य के चलते जनता अपनी समान विचारधारा और उद्देश्य वाले राजनीतिक दल का ना सिर्फ समर्थन करती है बल्कि कई बार एक ही परिवार में अलग अलग विचारधारा वाले राजनैतिक दल से जुड़े होने के चलते आपसी मतभेद इतने गहरे हो जाते हैं कि वह पीढ़ियों तक चलते है , वहीं चुनाव के बाद राजनेता एवं राजनैतिक पार्टियां जनता की भावनाओं को दरकिनार करके सत्ता पाने के लिए गठजोड़ कर लेती है ,ऐसे में चुनाव के जरिए चुने हुए जनप्रतिनिधि की जनता के प्रति विश्वसनीयता के क्या मायने रह जाते हैं।
जब कोई नेता पार्टी के टिकट ना दिए जाने पर ऐन वक्त पर या तो पार्टी बदल देता है या अपने को निर्दलीय बना लेता है ,दूसरी पार्टी में शामिल होने पर कहीं न कहीं वह अपनी विचारधारा ,आदर्श एवं उद्देश्यों से समझौता करता है, वहीं निर्दलीय होने पर, चुनाव हारने पर वह अपनी पुरानी पार्टी मे जा मिलता है, और जीतने पर सत्ता पाने वाली पार्टी चाहे वह किसी भी विचारधारा की हो उसमें दंडवत प्रणाम कर लेता है, क्यों?, सिर्फ और सिर्फ सत्ता पाने के लिए, लेकिन ऐसे में जनता की भावनाओं का कोई वजूद नहीं रह जाता।
आजकल के राजनैतिक परिदृश्य में हम यह देख रहे हैं, कि सत्ता पाने के लिए असमान विचारधारा वाले राजनैतिक दल एक होते नजर आ रहे हैं एवं अपना मतलब सिद्ध होने के बाद अपने संबंध विच्छेद करने में भी देर नहीं करते ,ऐसे में क्या जनता के विश्वास का हनन नहीं होता? और सवाल यह भी उठता है कि क्या विपरीत विचारधारा के गठजोड़ से लोकतंत्र को हानी नहीं पहुंचती?
यह कुछ ऐसे चिंतनीय विषय है जिनका लोकतंत्र में जवाब एवं हल खोजना बाकी है।
