आजादी के 64 साल बाद 2013 मैं उच्चतम न्यायालय की अनुमति के चलते नोटा का उपयोग चुनाव प्रक्रिया में होने लगा ,”नोटा ” जिसका अर्थ है चुनाव प्रक्रिया में राजनीतिक दलों के द्वारा खड़े किए प्रत्याशियों मैं से कोई भी प्रत्याशी जनता की पसंद का ना होना ,जिसके चलते वह नोटा का बटन वोट डालने के दौरान दबा सकता है जिसका अर्थ है इनमें से कोई नहीं ,वोट डालना हर मतदाता का मौलिक अधिकार है और हर नागरिक को अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए,लेकिन
अगर हम नोटा के जन्म कि गहराई में जाएं, तो हम पाते हैं कि नोटा का जन्मदाता भी राजनीतिक दल एवं राजनेता ही है ,मानव सेवा का मुखौटा पहनकर राजनेता जनता के बीच जनता की प्रमुख आवश्यकताओं एवं समस्याओं के निदान एवं आपूर्ति का वादा करता है, और जनता उस राजनेता एवं राजनीतिक दल पर भरोसा कर उसे चुनती है और वही राजनेता व राजनीतिक दल चुनाव जीतने के बाद, व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के चलते जनता के विश्वास पर खरे नहीं उतरते ,वंशवाद, भ्रष्टाचार ,जातिवाद, धर्म पर आधारित राजनीति जैसे कई पहलू हर राजनीतिक दल मैं अंदर तक जा समाए हैं और इन्हीं सब पहलुओं के चलते राजनीतिक दलों के द्वारा जनता के विश्वास का हनन होता है, साम, दाम, दंड ,भेद सब का उपयोग कर राजनेता और राजनीतिक दलों का मूल उद्देश्य सत्ता में आना और सत्ता में आने के बाद निस्वार्थ सेवा से नी हट जाता है और स्वार्थ रह जाता है ,राजनीति का मूल उद्देश्य अगर निस्वार्थ सेवा होती तो शायद आजादी के 70 साल के बाद चुनाव प्रक्रिया में नोटा का उपयोग करने की आवश्यकता महसूस न होती, यह जनता की विवशता है की वह अपने ही बीच रहने वाले नागरिक को ना चुनने पर मजबूर हो जाता है ।
नियमानुसार अगर जीतने वाले प्रत्याशी के वोटों का अंतर, नोटा के वोटों से कम है,तब चुनाव निरस्त कर पुनः मतदान का प्रावधान है।
लोकतंत्र में यह एक चिंता का विषय है एवं राजनीतिक दलों के लिए यह घोर आत्म चिंतन का विषय है ,राजनीतिक दलों को अपनी कार्यशैली एवं सोच मैं बदलाव की आवश्यकता है ,लोकतंत्र की स्थापना के लिए चुनाव प्रक्रिया में करोड़ों रुपए खर्च किया जाता है, कहीं ना कहीं इस भार का वाहन जनता को ही करना पड़ता है,वहीं लोकतंत्र और देश के विकास तंत्र को जिंदा रखने के लिए जनता को भी नोटा का इस्तेमाल सोच समझ कर करने की आवश्यकता है।
